मानव की समस्या

ज्यादातर मानव वर्तमान में जीना नहीं चाहते। वे या तो भूतकाल से जुड़े रहते हैं, या भविष्य के सपनों में खोए रहते हैं। मानव जो कुछ भी है उससे संतुष्ट नहीं हैं। हम कुछ और होना चाहते हैं। कुछ खोने या कुछ पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। यहीं संघर्ष टकराव का कारण बनता है जिससे तमाम तरह के अवगुण उत्पन्न होते हैं। कभी-कभी मानव कुछ अलग बनने के लिए, विशेष बनने के लिए कुछ ऐसा कर जाता है जो अमानवीय कृत्य कहलाता है। किसी कार्यालय में कोई क्र्लक, हेड क्र्लक बनना चाहता है, छोटा अधिकारी बड़ा अधिकारी बनना चाहता है और बड़ा अधिकारी सी.ई.ओ या डायरेक्टर बनना चाहता है। कुरूप इंसान, संुदर बनने का प्रयत्न करता है। सुंदर दिखने के लिए कभी कपड़ों से अपने आपको संवारता, कभी चेहरे को संवारता है, कभी बालों पर रंग-रोगन करता है, परन्तु अपने विचारों, भावनाओं को संवारने के लिए वह कम प्रयास करता है। इसलिए ऐसे मानव उलझकर रह जाते हैं और यह उलझाव की स्थिति आगे इतनी बिगड़ जाती है कि मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचती है। मानव ने इतने घातक हथियारों का जख़ीरा खड़ा कर लिया है जिससे मानव तो नष्ट हो ही सकता है साथ ही पूरी सभ्यता भी नष्ट हो सकती है। ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर रहने वाले जीव-जंतुओं का नष्ट होना भी तय है। मानव की सोच इतनी वीभत्स क्यों होती जा रही है? प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध क्यों हुए? इसका आसान उत्तर यही होगा। मानव, मानव के ऊपर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए व्यग्र हो गया है। ऐसे में उसने इंसानियत की चूलें ही हिला दी हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में इतने मनुष्यों की बलि चढ़ी जिससे पृथ्वी भी थर्रा उठी। इसके बावजूद युद्ध के प्रणेताओं की पिपासा शांत नहीं हुई। तत्पश्चात् दुनियाभर के लोगों ने जब विचार किया तो यह पाया कि कुछ तानाशाह राष्ट्राध्यक्ष व शासनाध्यक्ष अपनी झूठी शान के लिए पूरी पृथ्वी और मानवता को नष्ट करने पर  तुले हैं। 
द्वितीय महायुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ जिससे हिंसा को रोकने में सहायता मिली। तत्पश्चात अस्तित्व में आए मानवाधिकार आयोग ने पूरे विश्व में मानवाधिकारों की ललक जगाने का प्रयास किया। उसी का परिणाम है कि आज काफी हद तक हम शांति के माहौल में जी रहे हैं। कुछ देश भले ही अपने स्वार्थों की खातिर लड़ाईयां लड़े हों, परन्तु उन्हें भी बाद में इस बात का एहसास हुआ कि इस लड़ाई में किसी भी धर्म, समुदाय, जाति या देश के लोगों की जान जाए, परन्तु वे होते मानव ही हैं। दुनिया के तमाम देशों में आपस में वैमनस्य इतना बढ़ गया है कि वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय दबाव, संयुक्त राष्ट्र संघ और बुद्धिजीवियों के दबाव की वजह से शांति बनी हुई है। क्या यह शांति सच्ची शांति है? सच्ची शांति तभी होगी जब हम एक-दूसरे से दिल से मिलेंगे। दिल में कुछ और, चेहरे पर कुछ और का भाव लेकर की जाने वाली अंतर्राष्ट्रीय संधियों से बहुत दिनों तक शांति नहीं बनी रह सकती। 
आज भले ही युद्ध नहीं हो रहा है परन्तु मानसिक रूप से तमाम देश एक-दूसरे से लड़ रहे हैं। चाहे वे एशिया के देश हों, पूर्वी यूरोप के देश हांे, अफ्रीका के देश हांे, उत्तरी अमेरिका के देश हांे या दक्षिण अमेरिका के देश हों। हर जगह कहीं न कहीं दिलों में आग लगी हुई है। दिलों की आग को शांत करने के लिए मानवतावादी दृष्टिकोण विकसित किया जाना जरूरी है। मनुष्य अपनी नैसर्गिंकता को छोड़ रहा है और पलायनवादी बनता जा रहा है। यह पलायनवादी प्रवृत्ति मानव को मानवीय गुणों से दूर ले जा रही है। 
मानव, कुंठाग्रस्त, हिंसाग्रस्त, विवेकहीन क्यों होता जा रहा है ? महामानव बनने के चक्कर में मानव भी नहीं रह पा रहा है। मनुष्य के अंदर अहंकार, घृणा की भावना लगातार बढ़ रही है। ईष्र्या, द्वेष से ग्रस्त होकर मनुष्य तमाम अनैतिक कार्य करने लगा है। मानव के कुछ गुणों और अवगुणों पर यहां प्रकाश डालना जरूरी है। आज मानव के अंदर आपराधिक प्रवृत्ति, दर्द, मौत की अभिलाषा, निराशा, आंसू, चिड़चिड़ापन और ईष्र्या-द्वेष क्यों बढ़ता जा रहा है। इस पर हमें गहराई से विचार करना होगा क्योंकि मनुष्य के अंदर आने वाले ये ऐसे अवगुण हैं जो उन्हें मानवता से दूर करते हैं।  मानवाधिकार से पहले हम मानव, मानवता मानवीय गुणों व अवगुणों को समझना जरूरी है।
डाॅ. एम.यू. दुआ
एहरा