सुशासन से तमाम समस्याओं का निदान हो सकता है

10 दिसंबर 1948 को मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के बाद पूरे विश्व में मानवाधिकारों के बारे में नई तरह की चेतना विकसित हुई। दो विश्वयुद्ध के बाद मानव के खून से पृथ्वी भी रक्तरंजित हो गई थी। इस गलती को मनुष्य ने स्वीकार किया तत्पश्चात् संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन का विचार उसके मन में आया। 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद 1948 में मानवाधिकारों के संबंध में पूरे विश्व में चेतना जाग्रत हुई। इसके बाद अमेरिका, यूरोप, एशिया, अफ्रीका व आस्ट्रेलिया जैसे महाद्वीपों में मानवाधिकारों को लेकर लोगों में जागरुकता आई।
भारत भी 1945 में ही संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ गया था तथा 1947 में आजादी हासिल करने के बाद 1950 में एक संप्रभु राष्ट्र बना। सदियों गुलामी की पीड़ा झेलने के बाद स्वतंत्र हुए देश में तमाम तरह की समस्याओं का अंबार था। गरीबी, भुखमरी से लेकर अशिक्षा व कुपोषण जैसी समस्याओं से भारत जूझ रहा था। देश में खाद्यान्नों की कमी थी। संप्रभु राष्ट्र बनने के बाद भारत में विकास की यात्रा शुरू हुई जो अभी तक जारी है। इस दौरान भारत ने तमाम तरह के मानदंड स्थापित किए। हमने भुखमरी को दूर किया। काफी हद तक बेरोजगारी को समाप्त किया गया। शिक्षा का प्रसार किया गया। कुटीर उद्योगों से शुरू हुई हमारी यात्रा काफी आगे निकल चुकी है। भारत की अर्थव्यवस्था भी दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो चुकी है। हमारे यहां बुनियादी सुविधाओं का विस्तार हुआ है। साक्षरता दर बढ़ी है। हम कई क्षेत्रों में विकसित देशों के समकक्ष खड़े हो चुके हैं। मानवाधिकारों के बारे में भी भारत में जागरुकता लाने का प्रयास किया गया। हमारे यहां लोगों को कई अधिकार दिए गए हैं। भारत में लोगों को हर तरह की स्वतंत्रता है। हमारे समाज में मानवीय मूल्य महत्वपूर्ण होते हैं। मानवता के प्रति लोगों का नजरिया काफी उदार है। यहां के लोगों को दृष्टिकोण मानवतावादी होता है। ऐसे में मानवाधिकारों के पालन व संरक्षण के प्रति भारत में विशेष प्रगति हुई है। इसके बावजूद कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां अभी भी मानवाधिकारों के बारे में काम किए जाने की जरूरत है। इसके लिए लोगों में जागरुकता लाने के लिए सम्मिलित प्रयास की जरूरत है। सुशासन के माध्यम से तमाम समस्याएं समाप्त की जा सकती हैं। हमारे देश में यदि अभी भी मानवाधिकारों के बारे में पूरी तरह जागरुकता नहीं आ पाई है तो उसके लिए शासन के लोग भी दोषी हैं। अगर शुरू से ही हर तबके के लोगों को समानता मिली होती, सस्ता व सुलभ न्याय मिला होता, बेरोजगारी दूर हो गई होती, छोटे-बड़ों का भेद कम हो गया होता, गरीबी को समूल नष्ट किया गया होता, हर घर में शिक्षा की लौ जलाई गई होती तो आज मानवाधिकारों के बारे में देश का हर नागरिक परिचित होता। ऐसे में सुशासन एक ऐसा माध्यम है जिससे देश व समाज में समानता लाई जा सकती है। सबको उनका अधिकार दिया जा सकता है। शोषितों, वंचितों और पीड़ितों को मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है। हमारे देश में आज भी किसान, मजदूर समस्या ग्रस्त है। महिलाओं को पूरा अधिकार नहीं मिल पाया है। हर वर्ग के बच्चों को पूरी शिक्षा नहीं मिल पाती है। ग्राम पंचायतों को यथोचित अधिकार नहीं मिल पाया है। इसी तरीके से समाज के कुछ ऐसे तबके भी हैं जिनके लिए बहुत कुछ किया जाना था पर किन्हीं कारणवश नहीं किया जा सका।
मेरा मानना है कि मानवाधिकार की लौ जलाने के साथ-साथ यदि देश में अच्छा शासन हो, सभी को समानता मिले, देश व समाज के हर वर्ग के लोग मुख्यधारा में शामिल हों तो इससे हमारा समाज और चैतन्य होगा, देश विकसित होगा, संपन्नता आएगी, हम विकसित देशों की कतार में शामिल होंगे। जिस अनुपात में हमारे यहां समृद्धि बढ़ेगी, साक्षरता बढ़ेगी, कुपोषण हटेगा, अशिक्षा हटेगी, उसी अनुपात में हमारे यहां समानता आएगी और लोगों को अधिकार मिलेंगे और लोग मानवाधिकारों के बारे में पूरी तरह से जागरुक होंगे और मानवाधिकारों के पालन के प्रति भी वे सचेत रहेंगे।
- डॉ. एम. यू. दुआ